रविवार, 27 मार्च 2011

अहसास

जाने कैसी उलझनों मंे उलझी हुई हूं। बहुत कुछ दिमाग में चलते हुए भी लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। पूरे एक साल बाद बड़ी मशक्कत कर लिखने का हौंसला जुटा पाई हूं। जब तक लोगों के सम्पर्क में कम थी तो हर बात बड़ी आसानी से सबके साथ बांट लेती थी, लेकिन अब जाने कैसे डर से घिरी हुई हैै। जितने लोगों से जुड़ती जा रही हूं। उतनी कमजोर होती जा रही है। मैं कमजोर नहीं होना चाहती। शायद मेरी इस कमजोरी का एक बड़ा कारण हमारे समाज की सोच है। मुझे लगता है जाॅब कर रहीं अधिकतर लड़कियां इस अनुभव से जरूर गुजरी होंगी।

3 टिप्‍पणियां:

  1. कमजोर होने की जरुरत नहीं... मजबूती के साथ अपने कदम बढाओ... हम सही हैं तो किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए... सच को आंच नहीं आती....मजबूत बनो और आगे बढ़ो...

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  2. निहारिका जी

    अपने मन के भावों को शब्दों में ढाल कर एक छोटी-सी कविता का रूप दें … और ब्लॉग पर डालें :)

    हां, पढ़ने के लिए बुलाएं ज़रूर …
    क्योंकि
    जाल पर कहीं और उलझे रहे तो आप तक आने में विलंब न हो जाए …

    आपको भी हमारे यहां आने का आमंत्रण है …
    आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व एवं दुर्गा पूजा की बधाई-शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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